एक संदर्भ-बिंदु की आवश्यकता
संदर्भ बिंदु क्या है और हमें इसकी आवश्यकता क्यों है?
ध्यान से देखें और विचार करें
पाठ १ में हमने जीवन के अर्थ और उद्देश्य के बारे में उठते प्रश्नों पर विचार किया था। साथ ही, हमने "आशा" में कही गई इस बात को भी देखा था, "उन के लिए, जो इनके उत्तर ढूँढ रहे हैं, उन के लिए जो सुन रहें हैं, एक वाणी है"(आशा वीडियो, प्रस्तावना )। और अध्ययन की समाप्ति इस प्रश्न के साथ हुई थी - "क्या मैं सुन रहा हूँ?"
हो सकता है कि आप जीवन और उसके अर्थ के बारे में उठ रहे प्रश्नों के उत्तरों को सुन भी रहे हों। पर समस्या यह है कि यहाँ अनेक प्रतिस्पर्धात्मक आवाज़ें हैं। संसार के प्रमुख धर्मों (यानी बौद्ध धर्म, इस्लाम, यहूदी धर्म, हिंदू धर्म) के अलावा और भी सैकड़ों धर्म और विश्वदर्शन है। ये सभी जीवन को किसी न किसी खास नजरिए से देखने की वकालत करते हैं। कई बातों में, इनमें से हर एक परमेश्वर को खोजने का मार्ग पता होने का दावा करता है। लेकिन उनमें से कोई भी परमेश्वर की प्रकृति और उसे कैसे पाया जा सकता है इस बात पर एक दूसरे से पूरी तरह से सहमत नहीं होता है (और अधिकतर तो मूलतः असहमत होते हैं)। इतनी सारी परस्पर विरोधी शिक्षाओं के बीच भला कोई व्यक्ति कैसे जान सकता है कि कौन-सा मार्ग सही है? इसी लिए हमें एक संदर्भ-बिंदु की आवश्यकता पड़ती है।
एक अनजाने देश में किसी भी यात्री को अपना मार्ग खोजने के लिए एक माध्यम की आवश्यकता होती है। कुछ लोग किसी भरोसेमंद गाइड पर भरोसा करते हैं यानि ऐसा व्यक्ति जो पहले भी वह यात्रा सफलतापूर्वक पूरी कर चुका हो और दूसरों की सहायता करने योग्य हो। कुछ लोग सही मार्ग जानने के लिए किसी के द्वारा बताये गए किसी नक्शे या निर्देश पर चलते हैं। कुछ लोग किसी मील के पत्थर या तारों की सहायता से संदर्भ बिंदु निर्धारित करते हैं जिससे उन्हें अपनी वर्तमान स्थिति का पता चलता है और वे माप सकते हैं कि वे तब तक कितनी यात्रा तय कर चुके हैं।
अनजान देश में किसी यात्री के समान, इस जीवन की यात्रा में भी हमें अपने मार्ग को खोजने के लिए सहायता की आवश्यकता पड़ती है। हमें एक ऐसे सहायता-स्रोत की आवश्यकता है जिसे दूसरे लोग पहले परख चुके हों और जो भरोसेमंद साबित हो चूका हो। हमें एक संदर्भ-बिंदु की आवश्यकता है- कुछ ऐसा जो स्थिर और सच्चा हो, जिस के माध्यम से हम अपना मार्ग निर्धारित कर सकें। ऐसे किसी संदर्भ-बिंदु के बिना हम ऐसे ही हो जाएँगे जैसे किसी अनंत समुंद्र में, घने कोहरे के बीच, एक छोटी नाव में एकआदमी बैठा हो, जो भटकता हुआ बहता जा रहा हो... दिशाहीन।
पूछें और मनन करें
कल्पना करें कि आप की आंखों पर पट्टी बंधी है और आप फुटबॉल के मैदान की गोल रेखा पर खड़े हैं। अब कल्पना करें कि कोई आपको मैदान की दूसरी ओर इशारा करते हुए निर्देश दे रहा है कि आप जब तक उस दूसरी तरफ के गोल तक न पहुँच जाएँ एक सीधी रेखा में चलते रहें। ऐसी स्थिति में प्रायः व्यक्ति भटकता हुआ मैदान की किसी एक दिशा में चलता जाता है और कभी भी मिडफील्ड तक नहीं पहुँच पाता।
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हर किसी का एक पैर ज्यादा प्रबल होता है, जिस से वह लंबे डग भरता है जिस कारण वह उसी दिशा में घूम में ता जाता है1 दूसरे शब्दों में कहें तो हमारा 'झुकाव' अपने शारीरिक रूप से प्रबल पक्ष की ओर अधिक होता है। (यही कारण है कि जब लोग जंगल में खो जाते हैं, अधिकतर वे गोल-गोल भटकते रहते हैं)
इस चित्रण का बुनियादी सिद्धांत हमारे आत्मा के विषय में भी लागू हो सकता है। जब बात यह हो कि हम अपने आसपास की दुनिया को कैसे देखते हैं तो अपनी भावनाओं, मानसिक और आत्मिक मतभेदों के चलते हमारा झुकाव या पक्षपात, किसी न किसी रूप में, किसी एक पक्ष की तरफ अधिक हो जाता है। कई लोग अपना जीवन इस बात को जाने बिना ही व्यतीत करते रहते हैं कि उनके जीवन-मार्ग को उनके ये झुकाव या पक्षपात किस हद तक प्रभावित कर रहे होते हैं।
इन बातों को और जटिल बनाने के लिए, कल्पना करें कि आप आँखों पर पट्टी बांधे हुए उस मैदान पर चल रहे हैं, और मैदान के किनारे चारों ओर से कई आवाजें आपको इस ओर या उस ओर जाने के लिए बुला रही हैं। हमारे आजकल के विभिन्न धर्म और विश्वदर्शन इन्हीं आवाजों के समान है जो मैदान के किनारे से उठ रही हैं और आपको उनके अनुसार चलने के लिए बुला रही हैं। ऐसे में, मैदान की पूरी लंबाई तय करने का आपका प्रयास न केवल आपके व्यक्तिगत झुकाव से प्रभावित होगा बल्कि आपके आसपास के लोगों के पक्षपाती प्रभावों से भी प्रभावित होगा।
लेकिन क्या हो अगर कोई आपकी आँखों की पट्टी हटा दे और फिर आप मैदान के उस दूसरी तरफ के गोल को साफ़ साफ़ देख पाएँ? यदि ऐसा हो तो वह गोल आपके लिए एक संदर्भ-बिंदु बन जाएगा जिसके माध्यम से आप अपना मार्ग निर्धारित कर सकेंगे। आप एक सीधी रेखा में चल सकेंगे और आपके चारों ओर से उठ रही आवाज़ों से आप गुमराह नहीं होंगे। कई लोग अपने जीवन को किसी एक मार्ग चलाते तो हैं किंतु तय लक्ष्य या गोल तक कभी पहुँच नहीं पाते; या फिर वहाँ पर पहुँच कर उन्हें ज्ञात होता है कि यह तो वह है ही नहीं जो उन्होंने सोचा था। एक अनजान देश में एक यात्री के समान, अपनी जीवन-यात्रा में भी हमें एक ऐसे संदर्भ-बिंदु की आवश्यकता है जो परखा रखा हुआ हो और भरोसेमंद साबित हुआ हो, और जो हमें कभी निराश नहीं करेगा।
- आपके जीवन में, क्या आपके आत्मा के लिए एक भरोसेमंद संदर्भ-बिंदु है? एक ऐसा बिंदु जो जिसके माध्यम से आप अपने जीवन का मार्ग निर्धारित कर सकें और यदि आवश्यक हो तो वह आपकी दिशा को भी सही कर सकें?
- यदि हाँ तो वह संदर्भ बिंदु क्या है?
- ऐसे मुख्य प्रभाव या आवाजें क्या है जिन्होंने परमेश्वर के बारे में आपके विचारों को आकार दिया है, यानी बचपन, परिवार, शिक्षकों या अध्यापकों, मित्रों, आदर्श व्यक्तियों या नायकों की आवाजें?
निर्णय लें और करें
बाइबल में नीतिवचन की पुस्तक में एक पद मिलता है जो कहता है कि, "ऐसा मार्ग है, जो मनुष्य को ठीक देख पड़ता है, परन्तु उसके अन्त में मृत्यु ही मिलती है।" (नीतिवचन १४:१२).
अपने जीवन में इस हफ्ते आने वाली उन आवाजों की एक सूची बनायें जिन्होंने आपको उनके मार्गों पर ले जाने के लिए बुलाया। क्या वे आवाजें इतनी विश्वसनीय और भरोसेमंद थीं कि उनके पीछे चला जाए? यदि नहीं, तो आप उनके पीछे क्यों गए? थोड़ा समय निकालकर इस बात पर मनन कीजिए कि परमेश्वर के बारे में आपके विचारों को कहाँ और किसके द्वारा आकार दिया गया।
एक संदर्भ-बिंदु की हमारी आवश्यकता के बारे में आज का पाठ केवल एक अभ्यास नहीं है। यह एकदम सच है कि आपकी धारणा आपके मार्ग को निर्धारित करती है, और आपका मार्ग आपकी नियति निर्धारित करता है। आप जिस मार्ग पर चलेंगे, उसी बड़ी सावधानी से चुनें। आपके चुनाव के परिणाम बड़े महत्वपूर्ण और अनंत होंगे।
परमेश्वर के वचन बाइबल में, एक और पद है जो इस प्रकार कहता है "हे यहोवा, तेरा वचन मेरे पाँव के लिये दीपक और मार्ग के लिये उजियाला है।" (भजन ११९:१०५). इस सप्ताह के शेष पाठ आपकी जीवन यात्रा में बाइबल को आपका संदर्भ-बिंदु बनाने के लिए कारण प्रदान करेंगे। निर्णय लें कि आप उन खण्डों को जल्दबाज़ी में नहीं पढ़ेंगे। जो कुछ भी आप पढ़ेंगे उस पर गंभीरता से चिंतन करने के लिए समय निकालें। आपको प्रसन्नता होगी कि आपने ऐसा किया।
Footnotes
1Robert Schleip, The Dominant Leg (http://www.somatics.de/DominantLeg.htm). Retrieved October 2, 2006. Robert Schleip summarizes an article by Simone Kosog from the science section of the ‘Süddeutsche Zeitung Magazin’ 1999.