अच्छी बात या परमेश्वर की बात?
हर किसी के पास यीशु के लिए एक गुप्त उद्देश्य था - क्या आपके पास भी है?
प्रस्तावना
क्योंकि वह अपने चेलों को उपदेश देता और उनसे कहता था, "मनुष्य का पुत्र, मनुष्यों के हाथ में पकड़वाया जाएगा, और वे उसे मार डालेंगे; और वह मरने के तीन दिन बाद जी उठेगा।" पर यह बात उन की समझ में नहीं आई, और वे उससे पूछने से डरते थे।"
– मरकुस ९:३१-३२
"उस समय से यीशु अपने चेलों को बताने लगा, "अवश्य है कि मैं यरूशलेम को जाऊँ, और पुरनियों, और प्रधान याजकों, और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दु:ख उठाऊँ; और मार डाला जाऊँ; और तीसरे दिन जी उठूँ।" इस पर पतरस उसे अलग ले जाकर झिड़कने लगा, “हे प्रभु, परमेश्वर न करे! तेरे साथ ऐसा कभी न होगा।" उसने मुड़कर पतरस से कहा, "हे शैतान, मेरे सामने से दूर हो! तू मेरे लिये ठोकर का कारण है; क्योंकि तू परमेश्वर की बातों पर नहीं, परन्तु मनुष्यों की बातों पर मन लगाता है।" तब यीशु ने अपने चेलों से कहा, "यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप का इन्कार करे और अपना क्रूस उठाए, और मेरे पीछे हो ले। क्योंकि जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे, वह उसे खोएगा; और जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे पाएगा।"
– मत्ती १६:२१-२५
"वह अपने शिष्यों को अपने विशेष कार्य की सच्चाई समझाने लगा। उसने उन्हें बताया कि जल्दी ही वह धार्मिक अगुओं को सौंप दिया जाएगा और मार डाला जाएगा। तीन दिन के बाद वह मृतकों में से जी उठेगा। उसके चेलों ने उसकी बातों को सुना, लेकिन उसके शब्दों का सम्पूर्ण अर्थ नहीं समझ पाए।"
– "आशा" अध्याय १०
ध्यान से देखें और विचार करें
जब धरती पर उसकी सेवकाई का अंत निकट आने लगा, यीशु अपने चेलों से कहने लगा कि शीघ्र ही वह सताया जाएगा और मार डाला जाएगा, और तीन दिन बाद मृतकों में से जी उठेगा। मरकुस 9 के उपर्युक्त अंश, "यह बात उन की समझ में नहीं आई, और वे उससे पूछने से डरते थे," से यह तो स्पष्ट है कि यीशु जो कह रहा था उसके चेलों को समझ नहीं आ रहा था। इससे बढ़कर बात यह है कि उसके वचन उन लोगों की समझ के लिए इतने कठिन थे कि वे उससे उन वचनों का अर्थ पूछने से डरते थे।
मत्ती से उद्घृत उपर्युक्त अंश में उल्लेखित पतरस का उत्तर तो और भी अधिक नाटकीय है। पतरस न ही केवल उन वचनों को समझ नहीं सका बल्कि उसने जो बातें यीशु कह रहा था उसे बेधड़क नकार भी दिया। "हे प्रभु, परमेश्वर न करे! तेरे साथ ऐसा कभी न होगा।" पतरस ने यीशु से कहा "परमेश्वर न करे!," उससे जो स्वयं परमेश्वर था! पतरस को दिया गया यीशु का प्रत्युत्तर इतना तीखा था कि वह चौंका-सा देता है। "हे शैतान, मेरे सामने से दूर हो! तू मेरे लिये ठोकर का कारण है; क्योंकि तू परमेश्वर की बातों पर नहीं, परन्तु मनुष्यों की बातों पर मन लगाता है।" यीशु अनिवार्यतः कह रहा था कि परमेश्वर की इच्छा को कार्यरत होने से रोकने के लिए शैतान पतरस के माध्यम से कार्य कर रहा था।
यीशु ने तब ऐसे वचन कहे जो न केवल पतरस पर लागू होते हैं बल्कि उन लोगों पर भी लागू होते हैं जो यीशु का अनुसरण करना चाहते हैं, "यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप का इन्कार करे और अपना क्रूस उठाए, और मेरे पीछे हो ले। क्योंकि जो कोई अपना प्राण बचाना चाहे, वह उसे खोएगा; और जो कोई मेरे लिये अपना प्राण खोएगा, वह उसे पाएगा।"
यह हमारे सोचने की स्वाभाविक रीति से कितना विपरीत है! यदि आप अपना जीवन बचाना चाहते हैं तो आपको उसे उसकी खातिर दे देना होगा। यह कथन सुनने वाले को यह चुनौती देता है कि वे यीशु को केवल मसीह (छुड़ानेवाला), जीवित परमेश्वर का पुत्र के रूप में स्वीकार करने से कहीं बढ़कर मान्यता दें (मत्ती 16:16)! यहाँ चुनौती यह है कि सब कुछ छोड़ कर उसकी इच्छा का पालन किया जाए।
समस्त इब्रानी इतिहास में परमेश्वर बार-बार एक ऐसे छुड़ाने वाले को भेजने की अपनी प्रतिज्ञा को दोहराता है, जो एक दिन मानवजाति को शैतान, पाप और मृत्यु से छुड़ाएगा; जो एक दिन समस्त जातियों को प्रतिज्ञा की हुई आशीष प्रदान करेगा। यीशु अब यह कह रहा था कि उस प्रतिज्ञा को सार्थक करने का मार्ग अकल्पनीय सताव और दुःख से होकर गुज़रता है। निःसंदेह, हम आशीष पाना चाहते हैं। किंतु हम में से कितने लोग उस पर भरोसा करने के लिए राज़ी है कि इसे पाने के लिए वह हमें एक ऐसे स्थान में ले जाए जहाँ हम अपनी स्वाभाविक रीति से नहीं जाना चाहते हैं?
पूछें और विचार करें
- आपको क्या लगता है कि चेलों के लिए यीशु जो कह रहा था उसे स्वीकार करना इतना कठिन क्यों था... कि जल्द ही वह सताया जाएगा और मार डाला जाएगा और फिर तीसरे दिन वह मृतकों में से जी उठेगा? यदि आप चेलों में से एक होते, तो आपको क्या लगता है कि आप किस तरह की प्रतिक्रिया देते?
- जब आपका सामना किसी कठिन परीक्षा से होता है तो आपकी पहली प्रतिक्रिया क्या होती है? क्या ऐसा हो सकता है कि आप भी यीशु को वैसी ही प्रतिक्रिया दें जैसी पतरस ने दी थी (परमेश्वर न करे!)? या क्या आपकी प्रतिक्रिया कुछ अलग है?
निर्णय लें और करें
हमें अपने जीवन में आई हर एक कठिन बात को ऐसे नहीं देखना चाहिए कि जैसे कुछ गलत हो गया हो। हमारे मार्ग में ऐसी परीक्षाएँ आ सकती हैं जिनसे परमेश्वर नहीं चाहता कि हम गुज़रें। यीशु ने अपने अनुयायियों को बताया था कि विश्वास के द्वारा वे पहाड़ों को हटा सकते हैं (मत्ती 17:20, मत्ती 21:21, मरकुस 11:23)। ऐसे समय भी आते हैं जब परमेश्वर चाहता है कि हम अपने विश्वास का अभ्यास करें, उस पर भरोसा रखें कि वह हमारे समक्ष आई परीक्षाओं को हटा देगा या उनका समाधान करेगा। ऐसी परीक्षा को सहना मूर्खता होगी जिसे हटाने के लिए परमेश्वर चाहता है कि हम उस पर भरोसा करें।
दूसरी ओर कुछ ऐसी परीक्षाएँ भी होती हैं जो परमेश्वर हमारे जीवन में आने देता है जिन्हें वह हटाना नहीं चाहता है। पतरस के संदर्भ में (मत्ती 16:21-25), कितना भी दृढ़ भरोसा उस परीक्षा को हटा नहीं सकता था जिससे यीशु गुज़रने वाला था या न ही उन कठिनाइयों को हटा सकता था जो इसके परिणामस्वरूप चेलों पर पड़ने वाली थी। यह सब परमेश्वर की योजना का एक हिस्सा था, हालाँकि पतरस उस समय इसे देख नहीं पा रहा था। पतरस वह चाहता था जो वह समझता था कि अच्छी बात है; यीशु "परमेश्वर की बात" चाहता था। यदि पतरस यीशु के साथ जो कुछ होने वाला था, उसके महिमामय, अनंत उद्देश्य को जान और समझ सकता, तो वह इसे ग्रहण कर लेता, और संभवतः इससे हर्षित भी होता।
याकूब 1:2-4 में हम पढ़ते हैं, "हे मेरे भाइयो, जब तुम नाना प्रकार की परीक्षाओं में पड़ो, तो इसको पूरे आनन्द की बात समझो, यह जानकर कि तुम्हारे विश्वास के परखे जाने से धीरज उत्पन्न होता है। पर धीरज को अपना पूरा काम करने दो कि तुम पूरे और सिद्ध हो जाओ, और तुम में किसी बात की घटी न रहे।"
जब हम किसी परीक्षा का सामना करते है, तब अक्सर उसके उद्देश्यों को पहली बार में ही समझ नहीं पाते हैं। किन्तु हमें इस बात का आश्वासन होना चाहिए कि यदि उस परीक्षा को परमेश्वर ने हमारे जीवन में आने दिया है तो इसका एक उद्देश्य है। और क्योंकि परमेश्वर सब बातों पर नियंत्रण बनाए रखता है, इसलिए इनका परम उद्देश्य हमारी भलाई और उसकी महिमा होता है! यदि परमेश्वर ने आपको ऐसा विश्वास दिया है कि आप उस पर भरोसा करें कि वह उन परेशानियों को हटा देगा या सुलझा देगा, तो हर रीति से ऐसा ही करें। बस इतना सुनिश्चित कर लें कि आप एक ऐसा विश्वास जो परमेश्वर की ओर से नहीं है, निर्मित करने के द्वारा स्वयं के साथ कोई खेल तो नहीं खेल रहे हैं।
यदि परमेश्वर आपको किसी परीक्षा के माध्यम से उसका अनुसरण करने के लिए बुला रहा है, तो आश्वस्त रहें कि वह आपको इसे सहने का अनुग्रह भी देगा, और इसका परम उद्देश्य आपके लिए अच्छाई और परमेश्वर की महिमा, दोनों, लाएगा!
अधिक अध्ययन के लिए पढ़ें
- Rick James, Unmasking Life’s Trials. (© Campus Crusade for Christ, Inc., 2004–2005. http://grow.campuscrusadeforchrist.com/library/journey/trials.html). Retrieved November 2, 2006.
- Walter Chantry, Take Up Your Cross. (© The Reformed Reader, 1999–2006). (http://www.reformedreader.org/rbb/chantry/takeyourcrossenglish.htm). Retrieved November 2, 2006.