यीशु का बपतिस्मा

परमेश्वर ने हमारे स्थान पर मृत्यु सहने की अपनी मंशा घोषित की।


प्रस्तावना

"उससमययीशुगलीलसेयरदनकेकिनारेयूहन्नाकेपासउससेबपतिस्मालेनेआया।परन्तुयूहन्नायहकहकरउसेरोकनेलगा, "मुझेतोतेरेहाथसेबपतिस्मालेनेकीआवश्यकताहै, औरतूमेरेपासआयाहै?" यीशुनेउसकोयहउत्तरदिया, "अबतोऐसाहीहोनेदे, क्योंकिहमेंइसीरीतिसेसबधार्मिकताकोपूराकरनाउचितहै।" तबउसनेउसकीबातमानली।औरयीशुबपतिस्मालेकरतुरन्तपानीमेंसेऊपरआया, औरदेखो, उसकेलिएआकाशखुलगया, औरउसनेपरमेश्वरकेआत्माकोकबूतरकेसमानउतरतेऔरअपनेऊपरआतेदेखा।औरदेखो, यहआकाशवाणीहुई: “यहमेराप्रियपुत्रहै, जिससेमैंअत्यन्तप्रसन्नहूँ।""

– मत्ती ३:१३-१७

"इस घोषणा के द्वारा कि स्वर्ग का राज्य निकट है, यूहन्ना ने लोगों से परमेश्वर के मार्गों पर चलने को कहा। जब लोगों ने यूहन्ना का बुलावा स्वीकार किया कि वे परमेश्वर के अनुसार जीवन बिताएँ, तो उन्होंने बपतिस्मा नाम की एक विधि में भाग लिया, जिसमें उन्हें पानी में डुबकी दी गई। यह विधि शुद्धता और परमेश्वर की व्यवस्थाओं के अनुसार जीवन जीने की वचनबद्धता को व्यक्त करने के लिए की जाती थी।  और ऐसा हुआ कि एक दिन यीशु यूहन्ना के पास आया। यूहन्ना जानता था कि यीशु कौन है इसलिए उसने उससे बपतिस्मा लेने की इच्छा जताई। किन्तु अभी तक यीशु के नाम में बपतिस्मा देने का समय नहीं आया था,और यीशु ने यूहन्ना से बपतिस्मा लिया। जब यीशु पानी से बाहर आया तो परमेश्वर का आत्मा उस पर उतर आया और यह आकाशवाणी हुई, "यह मेरा प्रिय पुत्र है जिससे मैं अति प्रसन्न हूँ।"

– आशा, अध्याय ८

ध्यान से देखें और विचार करें

जैसा कि इस अध्याय में देखा गया है, बपतिस्मा1 की प्रथा की जड़ें धोए जाने के नियमों से जुड़ी थी जिन्हें परमेश्वर ने इब्रानी लोगों के शुद्धिकरण के उद्देश्य से करने का निर्देश दिया था  (लैव्यव्यवस्था 16:26, लैव्यव्यवस्था 28, लैव्यव्यवस्था 22:6, गिनती 19:7 तथा गिनती 19)| हालाँकि, यीशु को शुद्धिकरण की आवश्यकता नहीं थी। संभवतः यही कारण है कि यूहन्ना, जो बचपन से ही यीशु को जानता था, ने यीशु  को बपतिस्मा लेने से रोकने का प्रयास किया और उससे कहा, "मुझे तो तेरे हाथ से बपतिस्मा लेने की आवश्यकता है, और तू मेरे पास आया है?"(मत्ती 3:14).

फिर यदि शुद्ध करना अनावश्यक था तो, यीशु के जीवन में इस बपतिस्मे का उद्देश्य क्या था?

अधिकांश धर्मशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि इस घटना से कम से कम तीन बातें पूर्ण हुई: पहचान, अभिषेक और दृढ़ीकरण-संस्कार।2 पहचान के संबंध में, कई लोग मानते हैं कि यीशु, जो  व्यवस्था को लोप करने नहीं, परन्तु पूरा करने आया था (मत्ती 5:17), परमेश्वर की रीतियों के साथ जीवन व्यतीत करने की धार्मिकता के लिए यूहन्ना की पुकार के साथ अपनी पहचान स्थापित कर रहा था। कुछ लोग, हालांकि, इस घटना में एक अन्य पहचान स्थापित होते हुए भी देख रहे थे।

जैसा कि बाइबल शिक्षक डॉ. एच.ए. आयरनसाइड ने कहा, " हम उन कंगालों के समान हैं जिन्होंने इतने सारे कर्ज उठा लिए हैं कि अब  हमारे लिए उन्हें चुकाना संभव नहीं है।  यह हमारे पाप  हैं। ये भारी वसूली-दावे  हमारे विरुद्ध किए गए हैं  और यह भुगतान  करना हमारे लिए संभव नहीं।  परंतु जब यीशु आया, तो उसने हमसे वे सभी गिरवी-पत्र और नोट और ऋण- समझौंते ले लिए जिन्हें हम निभा नहीं पाए और उन्हें अपने नाम से पृष्ठांकित कर दिया, और इस तरह यह बताया कि वह उन्हें चुकाने की मंशा रखता है, वह उनका भुकतान करेगा।  उसका बपतिस्मा यही दर्शाता है, और इसलिए यीशु ने यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले से कहा, "... हमें इसी रीति से सब धार्मिकता को पूरा करना उचित है।"(मत्ती 3:15)| उसने मनुष्यों के ऋणों का भुगतान करने के लिए स्वयं को वचनबद्ध कर परमेश्वर की धार्मिकता की माँगों को पूरा करने के अपनी मंशा की घोषणा की।" 3

बपतिस्मा में, यीशु धार्मिकता के संबंध में न केवल परमेश्वर के साथ अपनी पहचान स्थापित कर रहा था, बल्कि वह हमारी धार्मिकता की आवश्यकता के सम्बन्ध में भी आपके और मेरे साथ पहचान स्थापित कर रहा था। यीशु परमेश्वर की धार्मिकता की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए स्वयं को हमारे स्थान पर एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने आया था। यह विकल्पीकरण उसके बपतिस्मे के साथ आरंभ हुआ और क्रूस पर पूर्ण हुआ।

इस घटना में अभिषेक तब आता है जब आत्मा एक कबूतर के रूप में यीशु पर उतरता है (मत्ती ३:१६)। अभिषेक किसी एक विशिष्ट विशेष कार्य को पूर्ण करने के लिए परमेश्वर की ओर से सामर्थ्य प्रदान करना है। यीशु लोगों के मध्य तीन वर्ष की अपनी सेवकाई में कदम रखने वाला है, जिसका समापन दुःख उठाने और बलिदान के एक अतुलनीय कार्य में होगा ताकि शैतान, पाप और मृत्यु पर विजय प्राप्त हो। इसी उद्देश्य के लिए यीशु का अभिषेक किया गया था।

यीशु का दृढ़ीकरण ऊपर स्वर्ग से पिता की वाणी में प्रगट हुआ: “यह मेरा प्रिय पुत्र है, जिससे मैं अत्यन्त प्रसन्न हूँ।“ (मत्ती 3:17)। जैसा कि हमने पिछले पाठ में देखा था, यह दृढ़ीकरण उन सभी आश्चर्यकर्मों का परिणाम नहीं था जो यीशु ने अब तक किए थे, क्योंकि ऐसा कोई कार्य तब तक किया ही नहीं था। यह दृढ़ीकरण इस बात का कि वह कौन था (या वह किसका था), और उस सम्बन्ध में उसके चलते रहने की उसकी इच्छा का परिणाम था।

पूछें और प्रतिबिंबित करें

  • क्या बपतिस्मा कुछ ऐसा है जिससे आप परिचित हैं? अगर ऐसा है तो कैसे? यदि नहीं, तो आप इसके बारे में क्या सोचते हैं?
  • क्या आपने कभी बपतिस्मा लिया है? उस समय आपके लिए क्या मायने रखता था?
  • यीशु बपतिस्मे के माध्यम से आपके साथ एक पहचान स्थापित करता है - इस बारे में आपके क्या विचार हैं? उसका ऐसा करना आपके लिए व्यक्तिगत रूप से इसके क्या मायने रखता हैं?

निर्णय लें और करें

इस पाठ में आपने देखा कि यीशु ने अपने बपतिस्मे में आपके साथ अपनी एक पहचान स्थापित की है। क्या आपने उसके साथ अपनी पहचान स्थापित की है? आपको इस प्रश्न की अपनी व्याख्या को बपतिस्मा तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए। बपतिस्मा यीशु के साथ आपकी व्यक्तिगत पहचान की एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक अभिव्यक्ति है। किन्तु क्या आपने अपने जीवन और अपने आसपास की दुनिया में यीशु और उसके उद्देश्यों के साथ व्यक्तिगत रूप से एक पहचान स्थापित की है? यदि नहीं, तो आपको पहचान स्थापित करने से ही आरंभ करने की आवश्यकता है।

जब आप अपना जीवन यीशु को समर्पित कर और अपने जीवन के लिए उस पर विश्वास कर उसके साथ एक पहचान स्थापित करते हैं, तब पिता परमेश्वर आपको वह कार्य करने की सामर्थ्य देता है जिसके लिए उसने आपको सृजा है और जो आपकी बुलाहट है। और जब वह आपको सशक्त बनाता है तो वह इस बात की पुष्टि अर्थात् दृढ़ीकरण भी करेगा कि वह प्रसन्न है कि आप उसके साथ एक सही संबंध में चल रहे हैं। उसका दृढ़ीकरण हो सकता है आकाश से एक ऊँचे शब्द में सुनाई देने के बजाये एक बहुत ही धीमी आवाज़ में आपके हृदय में सुनाई दे, पर वह निश्चित रूप से सुनाई देगा।

स्मरण रखें, यीशु का अनुसरण पहचान स्थापित करने के साथ आरंभ होता है। क्या आपने स्वयं की पहचान उसके साथ स्थापित की है?  यदि नहीं, तो देर न करें। तुरंत इस अध्ययन मार्गदर्शिका के अंत में दिए गए 'परमेश्वर को जानना' खंड में जाएँ, और आपको अपना पुत्र या पुत्री बनाने के स्वर्गीय पिता के उस महान निमंत्रण पर ध्यानपूर्वक विचार करें।

Footnotes

1What is baptism? The process of baptism is very simple. The one to be baptized begins by standing, sitting, or kneeling in some water. Another Christian then lowers him/her under the water and then brings him/her back up out of the water. Some literally call this “immersion.” Some faiths sprinkle water on people instead of immersing them.
2Ray C. Stedman, The Servant Who Rules. Exploring the Gospel of Mark. Volume One: Mark 1–8. (Discovery House Publishers, © 2002 by Elaine Stedman). (http://www.raystedman.org/mark/mark1.html). Retrieved October 27, 2006.
3Dr. H.A. Ironside, as quoted by Ray C. Stedman in his book, The Servant Who Rules. Exploring the Gospel of Mark. Volume One: Mark 1–8. (Discovery House Publishers, © 2002 by Elaine Stedman). (http://www.raystedman.org/mark/mark1.html). Retrieved October 27, 2006.

Scripture quotations taken from the NASB