परमेश्वर का क्रोध आप की ख़ातिर यीशु पर उँड़ेला गया।

प्रायश्चित्त का अद्भुत अविश्वसनीय अर्थ।


प्रस्तावना

उसे परमेश्‍वर ने उसके लहू के कारण एक ऐसा प्रायश्‍चित ठहराया, जो विश्‍वास करने से कार्यकारी होता है, कि जो पाप पहले किए गए और जिन पर परमेश्‍वर ने अपनी सहनशीलता के कारण ध्यान नहीं दिया। उनके विषय में वह अपनी धार्मिकता प्रगट करे।"

– रोमियों ३:२५

"इस कारण उस को चाहिए था, कि सब बातों में अपने भाइयों के समान बने; जिससे वह उन बातों में जो परमेश्‍वर से सम्बन्ध रखती हैं, एक दयालु और विश्‍वासयोग्य महायाजक बने ताकि लोगों के पापों के लिये प्रायश्‍चित करे।"

– इब्रानियों २:१७

"और वही हमारे पापों का प्रायश्‍चित है, और केवल हमारे ही नहीं वरन् सारे जगत के पापों का भी।"

– १ यूहन्ना २:२

प्रेम इस में नहीं कि हम ने परमेश्‍वर से प्रेम किया, पर इस में है कि उसने हम से प्रेम किया और हमारे पापों के प्रायश्‍चित के लिये अपने पुत्र को भेजा।"

– १ यूहन्ना ४:१०

क्रूस पर यीशु ने हमारे पापों को अपने ऊपर ले लिया। उसने हमारे पापों का दाम चुकाया। वह हमारा विकल्प बन गया। क्रूस पर परमेश्वर का न्याय संतुष्ट और उसका प्रेम सिद्ध हुआ। तब यीशु ने कहा, “पूरा हुआ।” और उसने अपना सिर झुकाया और प्राण त्याग दिए।"

– "आशा" अध्याय १०

ध्यान से देखें और विचार करें

पिछले पाठ में हमने इस बात पर विचार किया था कि क्रूस पर यीशु के कार्य ने ईश्वरीय अनुपात की दुविधा का समाधान कर दिया: उसने मनुष्य के प्रति परमेश्वर के प्रेम को सिद्ध किया और साथ ही, पाप के संदर्भ में उसके धर्मी न्याय को भी संतुष्ट किया। इससे अधिक भी कुछ है जो यीशु के क्रूस पर संतुष्ट किया गया और वह है, पाप और संसार पर पाप के विनाशकारी प्रभाव के प्रति परमेश्वर का क्रोध।

क्या आपने कभी कुछ ऐसा सुना या पढ़ा है जो दुष्टता से इतना लिप्त था कि उसे देखकर आपको घिन आई हो? कई बार लोग ऐसे किस्सों पर यह कहकर प्रतिक्रिया देते हैं, "यदि परमेश्वर इतना ही भला है, तो वह कैसे ऐसी बातों को होने देता है?" जब लोग इस प्रकार की बातें कहते हैं, तो यह इस बात का इशारा है कि कुछ ऐसे सत्य हैं जिनके बारे में उन्हें पता नहीं है।

पाप और संसार में उसके प्रभाव के संदर्भ में परमेश्वर का क्रोध इतना अधिक है कि हम उसका अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते हैं। किंतु, परमेश्वर इस पापपूर्ण संसार पर अपना क्रोध और न्याय तुरंत ही क्यों नहीं उड़ेल देता, इसके पीछे एक कारण है। इस कारण को हम 2 पतरस 3:9-10, से जान सकते हैं, "प्रभु अपनी प्रतिज्ञा के विषय में देर नहीं करता, जैसी देर कुछ लोग समझते हैं; पर तुम्हारे विषय में धीरज धरता है, और नहीं चाहता कि कोई नष्‍ट हो, वरन् यह कि सब को मन फिराव का अवसर मिले। परन्तु प्रभु का दिन चोर के समान आ जाएगा, उस दिन आकाश बड़ी हड़हड़ाहट के शब्द से जाता रहेगा और तत्व बहुत ही तप्‍त होकर पिघल जाएँगे और पृथ्वी और उस पर के काम जल जाएँगे।"

इस पद से हम देखते हैं कि एक दिन इस संसार और इसके कार्यों के साथ क्या होगा - वे सब जल जाएँगे। आखिरकार, परमेश्वर पाप से संक्रमित इस संसार को संरक्षित करने या बचाने का प्रयास नहीं कर रहा है; वह एक नए संसार की रचना कर रहा है (प्रकाशितवाक्य 21:1)। परंतु परमेश्वर संसार के पाप पर जितना अधिक क्रोधित है, यह पद हमें यह भी बताता है कि यीशु अपनी प्रतिज्ञा के विषय (द्वितीय आगमन और इस संसार का न्याय करने की) में देर नहीं करता है परंतु वह धीरज रखे हुए हैं क्योंकि वह नहीं चाहता कि एक जन भी नाश हो। दूसरे शब्दों में, पाप के प्रति परमेश्वर का क्रोध जितना अधिक है, लोगों के प्रति उसका प्रेम उतना ही गहरा है।

यद्यपि संसार पर उसका न्याय तुरंत नहीं आएगा, किंतु इसका आना निकट है और यह टलेगा नहीं। 1 और यह भयानक होगा। यह बात हमें हमारे आज के पाठ के मुख्य बिंदु पर वापस ले जाती है।

आज के पाठ के आरंभ में उद्घृत प्रत्येक पद में आप "प्रायश्चित" शब्द को पाएँगे। सरल शब्दों में कहें तो, इस शब्द "प्रायश्चित" का अर्थ है कि इस संसार के पाप के प्रति परमेश्वर का सारा क्रोध यीशु पर उँडेला गया और क्रूस पर संतुष्ट हुआ। 2 धर्मशास्त्री जे.आई. पैकर का कहना है कि प्रायश्चित "सुसमाचार का हृदय" है और बाइबल को सामान्यतः समझने की कुंजी है। 3

वे लोग जिन्होंने यीशु मसीह पर अपना भरोसा रखा है उनके लिए प्रायश्चित का अभिप्राय किसी अद्भुत अविश्वसनीय बात से कम नहीं है। इसका अर्थ यह है कि यद्यपि परमेश्वर का क्रोध एक दिन उन लोगों पर अवश्य ही उँडेला जाएगा जिन्होंने उसे नकार दिया है, किंतु वह उन लोगों पर कभी क्रोधित नहीं होगा जिन्होंने यीशु पर अपना भरोसा रखा है। यदि आपने यीशु पर अपना भरोसा रखा है, तो हो सकता है कि वह आपको अनुशासित करें क्योंकि वह आपसे प्रेम करता है  (इब्रानियों 12:6, इब्रानियों 10), किंतु वह कभी भी आप पर फिर कभी क्रोध नहीं करेगा क्योंकि यीशु ने उसे  क्रूस पर सह लिया है।

पूछें और मनन करें

  • क्या आप कभी किसी पर क्रोधित हुए हैं? क्या आपने कभी ऐसा कहा या सोचा है, "मुझे विश्वास नहीं हो रहा है कि उसने मेरे साथ ऐसा किया?" मनुष्य का क्रोध सामान्यतः तब भड़कता है जब किसी के द्वारा उसके साथ कुछ गलत किया जाता है, विशेषकर तब जब ऐसा होने की अपेक्षा न हो। परमेश्वर का क्रोध इससे भिन्न होता है। वह न केवल हमारे द्वारा किए गए प्रत्येक पापपूर्ण कार्य के बारे में जानता है, बल्कि वह उस प्रत्येक पापपूर्ण कार्य के बारे में भी जानता है जो हम भविष्य में करने वाले हैं। 4 यह जानकर, क्या आप विश्वास करते हैं कि परमेश्वर भी कभी ऐसा सोचता होगा, "मुझे विश्वास नहीं होता कि उसने ऐसा किया"?
  • क्रूस पर यीशु के कार्य के कारण, आपके भविष्य के पापपूर्ण कार्यों के प्रति परमेश्वर के क्रोध को शांत करने के लिए पहले ही प्रायश्चित चढ़ाया जा चुका है (संतुष्ट किया जा चुका है)। क्या आपके लिए इस बात पर विश्वास करना कठिन है? क्यों या क्यों नहीं?

निर्णय लें और करें

परमेश्वर के साथ मेल रखना  (रोमियों 5:1) एक अनमोल भेंट है। परंतु जैसे कि हमने पिछले  पाठों में पढ़ा है, यह एक भेंट या उपहार तब तक नहीं है जब तक आप इसे ग्रहण न कर लें। ऐसा पूर्णतया संभव है कि आप यह विश्वास तो करें कि आप स्वर्ग जाएँगे क्योंकि आपने वास्तव में इस बात पर विश्वास किया है कि यीशु मसीह ने आपके पापों का दाम चुकाया है, किंतु साथ ही यह भी महसूस करें कि परमेश्वर आपके द्वारा किए गए किसी कार्य के कारण आप पर क्रोधित है। किसी-किसी भेंट को दूसरों की तुलना में ग्रहण करना कठिन होता है, इसलिए नहीं क्योंकि भेंट देने वाला इसे कठिन बना रहा होता है बल्कि इसलिए क्योंकि हम इसे कठिन बना रहे होते हैं। भावनाएँ इतनी शीघ्रता या आसानी से बदलती नहीं हैं। किंतु समय के साथ-साथ जो हम महसूस करते हैं, वह बदलता जाता है उससे जो हम जानते हैं। यदि आपको परमेश्वर के साथ मेल रखने में कठिनाई हो रही है, यदि आपके लिए इस सत्य को मानना कि परमेश्वर आपसे कभी क्रोधित नहीं होता है, कठिन लग रहा है तो इस पाठ के आरंभ में उद्धृत बाइबल के पदों को याद करें और उन पर मनन करें। उन पदों के साथ लिखे गए अन्य पदों के संदर्भ में उनका अध्ययन करें। परमेश्वर से विनती करें कि वह इस सत्य को आप में जीवंत करें। वह ऐसा अवश्य करेगा क्योंकि वह अपने वचन के प्रति विश्वासयोग्य है।

अधिक अध्ययन के लिए पढ़ें

Footnotes

12 Peter 3:7 – “But by His word the present heavens and earth are being reserved for fire, kept for the day of judgment and destruction of ungodly men.”
2J.I. Packer, Knowing God. (InterVarsity Press, 1973, p.167). Packer quotes John Murray’s definition of propitiation (from his book The Atonement) as follows: “The doctrine of propitiation is precisely this: that God loved the objects of His wrath so much that He gave His own Son to the end that He by His blood should make provision for the removal of this wrath. It was Christ’s so to deal with the wrath that the loved would no longer be objects of wrath, and love would achieve its aim of making the children of wrath the children of God’s good pleasure.”
3Ibid. p. 172. Packer writes: “A further point must now be made. Not only does the truth of propitiation lead us to the heart of the New Testament gospel; it also leads us to a vantage–point from which we can see to the heart of many other things, too. When you stand on top of Snowdon, you see the whole of Snowdonia spread out round you, and you have a wider view than you can get from any other point in the area. Similarly, when you are on top of the truth of propitiation, you can see the entire Bible in perspective, and you are in a position to take the measure of vital matters which cannot be properly grasped on any other terms. In what follows, five of these will be touched on: the driving force in the life of Jesus; the destiny of those who reject God; God’s gift of peace; the dimensions of God’s love; and the meaning of God’s glory. That these matters are vital to Christianity will not be disputed. That they can only be understood in the light of the truth of propitiation cannot, we think, be denied.”
4Merrill F. Unger, The New Unger’s Bible Dictionary. (Edited by R.K. Harrison, Howard Vos, and Cyril Barber; Originally published by Moody Press, 1988). “OMNISCIENCE. The divine attribute of perfect knowledge. This is declared in Psalm 33:13-15 ; Psalm 139:11-12 ; Psalm 147:5; Proverbs 15:3; Isaiah 40:14; Isaiah 46:10; Acts 15:18; 1 John 3:20; Hebrews 4:13, and in many other places. The perfect knowledge of God is exclusively His attribute. It relates to Himself and to all beyond Himself. It includes all things that are actual and all things that are possible. Its possession is incomprehensible to us, and yet it is necessary to our faith in the perfection of God’s sovereignty. The revelation of this divine property like that of others is well calculated to fill us with profound reverence. It should alarm sinners and beget confidence in the hearts of God’s children and deepen their consolation (see Job 23:10; Psalm 34:15-16 ; Psalm 90:8; Jeremiah 17:10; Hosea 7:2; 1 Peter 3:12-14 ). The Scriptures unequivocally declare the divine prescience and at the same time make their appeal to man as a free and consequently responsible being.”

Scripture quotations taken from the NASB