इच्छुक बनने के लिए तैयार

मनुष्य की भूमिका और परमेश्वर की भूमिका


प्रस्तावना

“आदम को चुनने की आज़ादी दी गई थी – वह स्वतंत्रता, जो परमेश्वर के उद्देश्य का केंद्र थी। क्योंकि मनुष्य को सृजा गया था परमेश्वर से प्रेम करने के लिए, और परमेश्वर के द्वारा प्रेम पाने के लिए। और प्रेम करने के चयन की स्वतंत्रता के बिना प्रेम, सही मायने में प्रेम नहीं है। इसलिए आदम के सामने एक चुनाव था - फल चखने या न चखने का; एक ऐसा चुनाव जिसका परिणाम था - जीवन या मृत्यु।“

– “आशा” अध्याय २

ध्यान से देखें और विचार करें

जिस क्षण से परमेश्वर ने आदम को अच्छे और बुरे के ज्ञान के वृक्ष में से चखने से मना किया था, तब से ही आदम को एक चयन का सामना करना पड़ा। संसार पर परमेश्वर की संप्रभुता (या नियंत्रण) और चयन करने के प्रति मनुष्य का उत्तरदायित्व (या स्वतंत्रता) के विचार के बीच प्रतीत होते घोर संघर्ष के बारे में बहुत कुछ लिखा गया है।1

कुछ लोग कहते हैं कि परमेश्वर प्रत्येक व्यक्ति की नियति निर्धारित करता है; दूसरों का कहना है कि मनुष्य एक नैतिक प्राणी है जो अपनी पसंद से अपनी नियति निर्धारित करता है। सत्य यह है कि ऐसा प्रतीत होता है कि बाइबल में दोनों विचारों को सिखाया जा रहा है। उदाहरण के लिए, यहोशू २४:१५ में यहोशू  इब्रानी लोगों से कहता है: "... आज चुन लो कि तुम किस की सेवा करोगे ... मैं तो अपने घराने समेत यहोवा की सेवा नित करूँगा ।"

और, यूहन्ना १५:१६ में, यीशु अपने सबसे करीबी मित्रों और अनुयायियों से कहता है, "तुम ने मुझे नहीं चुना परन्तु मैं ने तुम्हें चुना है और तुम्हें ठहराया ताकि तुम जाकर फल लाओ; और तुम्हारा फल बना रहे...."

इस अध्ययन मार्गदर्शिका का अभिप्राय परमेश्वर के नियंत्रण और मनुष्य की पसंद के बीच संघर्ष की व्यापक रूप से जाँच और समाधान करना नहीं है। ऐसे धर्ममीमांसा-संबंधी तर्क हमारे दायरे से बाहर हैं। हालांकि, यह आपके लिए उन लोगों के निम्नलिखित विचारों पर चिंतन करने के लिए उपयोगी सिद्ध हो सकता है जिन्होंने इस पाठ्य सामग्री को तैयार किया है।

पूछें और मनन करें

यदि आप सौ लोगों से यह समझाने के लिए कहें कि उन्होंने परमेश्वर को कैसे जाना तो शायद आपको ऐसे बहुत लोग नहीं मिलेंगे जो कहेंगे कि वे इतने बुद्धिमान थे कि उन्होंने परमेश्वर तक पहुँचने का मार्ग स्वयं ही खोज लिया, बजाय इसके कि परमेश्वर उन्हें ढूँढता। इससे भी बढ़कर हो सकता है कि इनमें से कुछ लोग इस बारे में नाटकीय कहानियाँ सुनायें कि परमेश्वर को अंततः जानने से पहले उन्होंने उसे कैसे अस्वीकार कर दिया था।

बड़ी संख्या में लोगों से उनकी आत्मिक यात्रा के बारे में पूछना आपको परमेश्वर के नियंत्रण और मनुष्य की पसंद के बीच सदियों पुराने धर्ममीमांसा-संबंधी संघर्ष को हल करने के करीब नहीं ला सकता है। हालांकि, यह आपको इसके जैसे ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचा सकता है: हम सभी परमेश्वर को अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं, किन्तु कोई भी, उनकी जीवन-यात्रा में ईश्वरीय पहल और हस्तक्षेप के बिना परमेश्वर को वास्तव में खोज नहीं पाता है।

निर्णय ले और करें

संभवतः आपने परमेश्वर के साथ एक व्यक्तिगत संबंध स्थापित करने की इच्छा या मार्गदर्शन का एहसास किया तो है, किन्तु अभी तक आप ऐसा करने से कतराते रहे हैं। या शायद आप पहले से ही परमेश्वर को जानते हों, लेकिन आप किसी ऐसी समस्या या स्थिति से जूझ रहे हों, जिसमें आपको परमेश्वर को चुनने या न चुनने के बीच चयन करना पड़ा हो। याद रखें, आपके पास चुनने से मना करने का विकल्प नहीं है। यदि आपका चयन परमेश्वर के लिए नहीं है, तो वह उसके विरुद्ध है (मत्ती १२:३०, लूका ११:२३)|

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप की स्थिति क्या है, भले ही आपको लगता हो कि आप परमेश्वर को चुनने में असमर्थ हैं, आप परमेश्वर से यह कह सकते हैं कि वह उसे चुनने में आपकी सहायता करें।

क्या आप इच्छुक बनने के लिए तैयार हैं? यदि नहीं, तो उसे कहें कि वह आपको तैयार करें।

Footnotes

1John Piper, A Response to J. I. Packer on the So–Called Antinomy Between the Sovereignty of God and Human Responsibility. (This article is dated March 1, 1976. © Desiring God, 2006). (http://www.desiringgod.org/ResourceLibrary/Articles/ByDate/1976/1581_A_Response_to_JI_Packer_on_the_SoCalled_Antinomy_Between_the_Sovereignty_of_God_and_Human_Responsibility/). Retrieved November 10. 2006. Piper addresses this issue as follows: “Therefore, in order to see how God’s sovereignty and man’s responsibility perfectly cohere, one need only realize that the way God works in the world is not by imposing natural necessity on men and then holding them accountable for what they can’t do even though they will to do it. But rather God so disposes all things (Ephesians 1:11) so that in accordance with moral necessity all men make only those choices ordained by God from all eternity.


One last guideline for thinking about God’s action in view of all this: Always keep in mind that everything God does toward men – his commanding, his calling, his warning, his promising, his weeping over Jerusalem, – everything is his means of creating situations which function as motives to elicit the acts of will which he has ordained to come to pass. In this way, He ultimately determines all acts of volition (though not all in the same way) and yet holds man accountable only for those acts which they want most to do.”
 

Scripture quotations taken from the NASB