आदर्श प्रार्थना

प्रार्थना पर यीशु की शिक्षा


Iयदि आप प्रार्थना करना सीखना चाहते हैं तो आप अपने शिक्षक के रूप में किसे चुनेंगे? मत्ती ६:९-१३, में एक आदर्श प्रार्थना दर्ज़ है जो स्वयं यीशु मसीह ने दी है। यह प्रार्थना केवल जपने के लिए नहीं है बल्कि यह आपको सिखाती है कि प्रार्थना कैसे करनी चाहिए। इसे "सभी प्रार्थनाओं का सच्चा नमूना" कहा गया है। इस प्रार्थना का प्रत्येक पद प्रार्थना के एक महत्वपूर्ण आयाम की पहचान करता है।

"हे हमारे पिता, तू जो स्वर्ग में है; तेरा नाम पवित्र माना जाए।“ - पद ९

प्रार्थना का उद्गम स्थल स्वयं परमेश्वर है। अपनी प्रार्थना को स्वयं पर से और अपनी परिस्थितियों पर से हटाकर अपने हृदय और मन को इस बात पर लगाएँ कि परमेश्वर कौन है। यह इसके बाद आने वाली हर बात को प्रभावित करेगा। यीशु ने अपनी प्रार्थना का आदर्श दो ऐसे सत्यों को साथ में लाकर किया है जो परस्पर इतने अधिक विपरीत प्रतीत होते हैं कि ऐसा लगता है मानो उन्हें साथ में एक ही साँस में बोलना संभव ही नहीं है। परमेश्वर आपका पिता है। आपके प्रति उसका प्रेम अथाह, सिद्ध, कोमल और बेशर्त है। परमेश्वर पवित्र भी है। उसकी महिमा और प्रताप इतना तेजपूर्ण है कि उसके सिंहासन के चारों ओर स्वर्गदूत अपनी आँखों और पाँवों को ढाँपे हुए रहते हैं ताकि परमेश्वर की तेजोमय उपस्थिति से वे नष्ट न हो जाएँ (यशायाह ६:२)। प्रार्थना में अत्यधिक अंतरंगता और भयमय आदर दोनों सम्मलित होते हैं।

सेना में एक पाँच-सितारा जनरल, सर्वोच्च सैन्य पद अधिकारी, कई लोगों द्वारा जाना जा सकता है। जब वह पास से गुज़रता है तो अधिकांश लोग सावधान की मुद्रा में खड़े हो जाते हैं और सलामी देते हैं। लेकिन उसके प्रिय (उसकी पत्नी या बच्चे, इत्यादि) जो उसे अंतरंगता से जानते हैं, ऐसा नहीं करते हैं और वे जब चाहें अचानक से उससे मिलने आ सकते हैं। बहुत से लोग हैं जो परमेश्वर के बारे में जानते हैं किन्तु उसकी संतान होने के नाते हम परमेश्वर पिता से सीधे मिल सकते हैं। प्रार्थना के माध्यम से हम कभी भी उसके सिंहासन कक्ष में किसी भी समय प्रवेश कर सकते हैं... और हम जानते हैं कि वह चाहता है कि हम उसके पास आएँ!

इसलिये आइए, हम अनुग्रह के सिंहासन के निकट हियाव बाँधकर चलें कि हम पर दया हो, और वह अनुग्रह पाएँ जो आवश्यकता के समय हमारी सहायता करे। (इब्रानियों ४:१६).

क्योंकि आपको दासत्व की आत्मा नहीं मिली कि फिर भयभीत हो, परन्तु संतान के रूप में लेपालकपन की आत्मा मिली है, जिससे हम हे अब्बा, हे पिता कहकर पुकारते हैं | (रोमियों ८:१५) 

हम सभी को एक पिता की गहन आवश्यकता के साथ सृजा गया है।। कई लोगों ऐसे भी होते हैं जिनकी इस आवश्यकता की पूर्ति कभी नहीं हो पाती है। पिता वह होता है जो अपनी संतानों की रक्षा करता है और उनका पालन पोषण करता है। वह बुद्धि और प्रेम के साथ उनका मार्गदर्शन करता है और उन्हें जीवन में फलने-फूलने के लिए तैयार करता है। आगे पढ़ने से पहले, एक क्षण के लिए सोचें कि वह पवित्र, सर्वशक्तिमान, सृष्टिकर्ता और सब पर प्रभुता करने वाला परमेश्वर, आपका पिता है। उसे आदर दें और उसका प्रेम प्राप्त करें।

“तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो।“ - पद १० 

क्योंकि वह परमेश्वर है, आपका स्वर्गीय पिता जानता है कि आपके हृदय में क्या है? आपके कहने से पहले ही वह जानता है कि आप क्या कहने जा रहे हैं। तो फिर प्रार्थना क्यों करें? प्रार्थना का (और प्रत्येक प्राणी का) परम उद्देश्य है परमेश्वर को महिमा देना। प्रार्थना के माध्यम से आपको यह अतुल्य विशेषाधिकार प्राप्त होता है कि आप परमेश्वर की अद्भुत अनंत योजना में सहभागी हो सकते हैं। प्रार्थना इस लिए नहीं होती है कि परमेश्वर से वह कार्य कराए जाए जो वह नहीं करना चाहता। प्रार्थना वह माध्यम है जिसके द्वारा हम परमेश्वर की इच्छा को अपनाते हैं (ग्रहण करते हैं)। प्रार्थना एक ऐसा माध्यम है जिसके द्वारा परमेश्वर अपनी इच्छा इस संसार पर प्रकट करता है।

यीशु ने कहा था कि उससे अलग होकर हम कुछ भी नहीं कर सकते (यूहन्ना १५:५)। यदि आप यीशु के वचन मानें तो, उससे अलग होकर तो हम प्रार्थना भी नहीं कर सकते। उन वचनों को स्मरण करें जिसके अनुसार, परमेश्वर ने कहा और संसार अस्तित्व में आ गया (भजन संहिता ३३:६, भजन संहिता  )। जब परमेश्वर के साथ आप घनिष्ठता में बढ़ते हैं, उसके वचन का अध्ययन करते हैं, आज्ञाकारिता में चलते हैं, और प्रार्थना में उसे सुनते हैं, तब पवित्र आत्मा प्रार्थना में उसकी इच्छा को इस संसार में कहने के लिए आपका उपयोग करेगा। "तेरा राज्य आए। तेरी इच्छा जैसी स्वर्ग में पूरी होती है, वैसे पृथ्वी पर भी हो।" इस बात का एहसास करें कि परमेश्वर की इच्छा सिद्ध और भली है (रोमियों १२:२), यह कि वह ऐसा सामर्थी है कि हमारी विनती और समझ से कहीं अधिक काम कर सकता है (इफिसियों ३:२०)। एक मायने में, आपको प्रार्थना के माध्यम से जो भी मिलता है वह असीमित धनराशि वाले एक विशेष व्यय खाते के समान है। एक व्यय खाते की परिभाषा है, एक ऐसी व्यवस्था जिसके द्वारा किसी निश्चित कार्य को पूरा करने के लिए सभी खर्चों का भुगतान कर दिया जाता है, जो इस स्थिति में परमेश्वर के राज्य का खाता है। हम में से कई लोग शायद ही कभी इस खाते से कुछ निकालते होंगे, और यदि निकालते भी हैं तो वह राशि,  उस खाते में हमारे लिए जमा राशि की तुलना में बहुत ही कम होती है। बहुत से लोग उस धन के लिए अनुरोध प्रस्तुत तो करते हैं, लेकिन उनका अनुरोध अस्वीकार कर दिया जाता है क्योंकि वह अनुरोध उस उद्देश्य के अनुरूप नहीं होता जिस उद्देश्य से वह खाता बनाया गया है। पता लगाएं कि परमेश्वर के पास आपके लिए जो कुछ है उसे प्रार्थना के माध्यम से कैसे ग्रहण किया जा सकता है!

आपको इसलिये नहीं मिलता क्योंकि आप माँगते नहीं। आप माँगते हैं और पाते नहीं, इसलिये कि बुरी इच्छा से माँगते हैं ... (याकूब ४:२-३) |

"हमारी दिन भर की रोटी आज हमें दे।" - पद ११ 

जब आप अपना जीवन परमेश्वर को देते हैं तो आप फिर स्वयं के नहीं रह जाते हैं। आप उसके बन जाते हैं, और आपका हित उसका उत्तरदायित्व बन जाता है। वह आपका पिता है, और वह वह सबकुछ प्रदान करने की प्रतिज्ञा करता है जो आपको उस जीवन को जीने के लिए आवश्यक है जिसमें उसने आपको जीने के लिए बुलाया है - मत्ती 6:25-33, (भजन संहिता 37:25, फिलिप्पियों 4:19)। ऐसा कहा जाता है कि परमेश्वर के कार्य को परमेश्वर की रीति से किया जाए तो परमेश्वर के प्रबंध की कभी कमी नहीं होती। यह कथन अधिकतर सेवकाई के सन्दर्भ में कहा जाता है, किंतु यह लोगों पर भी उतना ही लागू होता है।

परंतु "प्रतिदिन" क्यों कहा गया है? इस एक कारण कि, अपनी प्रतिदिन की आवश्यकताओं के लिए परमेश्वर पर निर्भर रहना उसके साथ आपके संबंध को सक्रिय और तरोताज़ा रखता है। यह आपको आपकी आवश्यकता और उसके प्रबंध के बीच एक स्पष्ट संबंध देखने में सहायता करता है। इस बात का ध्यान रखें कि प्रार्थना का परम उद्देश्य वस्तुएँ पाना नहीं है या कार्य करवाना नहीं है। प्रार्थना का उद्देश्य परमेश्वर को महिमा देना है। फिर भी, जब आप किसी विशेष रीति से किसी विशिष्ट आवश्यकता के विषय में प्रार्थना करते हैं और वह प्रार्थना एक विशिष्ट रीति से पूरी होती है, तब परमेश्वर आपके लिए और आपके आसपास के लोगों के लिए अधिक वास्तविक बन जाता है, जो जानते हैं कि उसने आपके लिए क्या किया है। उसे महिमा मिलती है और आप उसके चरित्र, उसके स्वभाव और उसकी रीतियों के विषय में अपनी समझ में बढ़ते हैं।

किसी भी बात की चिन्ता मत करो; परन्तु हर एक बात में तुम्हारे निवेदन, प्रार्थना और विनती के द्वारा धन्यवाद के साथ परमेश्‍वर के सम्मुख उपस्थित किए जाएँ (फिलिप्पियों ४:६)|

"और जिस प्रकार हम ने अपने अपराधियों को क्षमा किया है, वैसे ही तू भी हमारे अपराधों को क्षमा कर।" - पद १२

किसी लेखक ने इस बात पर ध्यान दिया कि, "जैसे रोटी शरीर की पहली आवश्यकता है, उसी तरह क्षमा आत्मा की पहली आवश्यकता है... यह पिता परमेश्वर के संपूर्ण प्रेम और उसकी संतानों के संपूर्ण विशेषाधिकारों का प्रवेश द्वार है।" क्रूस पर मसीह के कार्य के आधार पर, परमेश्वर आपके उस प्रत्येक पाप के लिए क्षमा की भेंट प्रदान करता है जो आपने कभी किए थे और जो आप आगे करने वाले हैं। किंतु वह भेंट आपकी बन जाए इसके लिए आवश्यक है कि आप उसे ग्रहण करें। जब आप मसीह पर अपने उद्धारकर्ता के रूप में भरोसा करते हैं, तब आप परमेश्वर की क्षमा में प्रवेश करते हैं।  जब आप अपने पापों का अंगीकार करते हैं और जब आप उन लोगों को क्षमादान देते हैं जिन्होंने आप के विरुद्ध पाप किया हो, तब आप उसकी क्षमा की स्वतंत्रता और आशीष में चलते रहते हैं।

यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्‍वासयोग्य और धर्मी है (१ यूहन्ना १:९)।

परंतु यदि तुम मनुष्यों के अपराध क्षमा न करोगे, तो तुम्हारा पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा न करेगा (मत्ती ६:१५)।

"और हमें परीक्षा में न ला, परन्तु बुराई से बचा;" - पद १३ क 

पद ११ भौतिक आवश्यकता के विषय में प्रार्थना करने के लिए आपकी अगुवाई करता है, और पद १२ आपकी आत्मा की आवश्यकता के विषय में, इसलिए पद १३ क आपको आत्मिक आवश्यकता के विषय में प्रार्थना करना सिखाता है। १ पतरस ५:८ आपको स्मरण दिलाता है कि, "सचेत हो, और जागते रहो; क्योंकि तुम्हारा विरोधी शैतान गर्जनेवाले सिंह के समान इस खोज में रहता है कि किस को फाड़ खाए।" परंतु आपको भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि १ यूहन्ना ४:४ आपको स्मरण दिलाता है कि "जो तुम में है (पवित्र आत्मा) वह उस से जो संसार में है (शैतान), बड़ा है।" (विवरण जोड़ा गया है) 

अपने शत्रु को पराजित करने के लिए आपको जिस भी आत्मिक स्रोत की आवश्यकता पड़ती है, परमेश्वर वह सब आपको प्रदान करता है। जिस प्रकार आप अपने शरीर और आत्मा के लिए परमेश्वर के प्रबंधों को ग्रहण करते हैं उसी प्रकार आप इन आत्मिक स्रोतों को भी प्रार्थना के माध्यम से ग्रहण कर सकते हैं। ध्यान दीजिए कि पद १०-१३ में पाए जाने वाले सर्वनाम बहुवचनीय हैं। न केवल अपनी आवश्यकताओं के लिए बल्कि दूसरों की आवश्यकताओं के लिए भी प्रार्थना करें। दूसरों के लिए प्रार्थना करना मध्यस्थता कहलाता है। ज़रा इस बारे में सोचिए - आपके कई मित्र ऐसे हैं जिनका पीछा हमारा विरोधी (शैतान) कर रहा है; कुछ ऐसे भी हैं जिन्हें दुष्ट आत्माओं द्वारा बंदी बना लिया गया है। आपके पास प्रार्थना के माध्यम से उन्हें बचाने में सहभागी होने का विशेषाधिकार प्राप्त है।

"क्योंकि राज्य और पराक्रम और महिमा सदा तेरे ही हैं।" - पद १३ ख 

पद १३ ख बाइबल के कुछ अनुवादों में नहीं पाया जाता है। किंतु इस अध्ययन मार्गदर्शिका के उद्देश्य के लिए, यह जान लें कि यह पद एक प्रभावशाली उद्घोषणा है जो परमेश्वर की स्तुति करती है। स्तुति करना ही निश्चित रूप से एक ऐसे व्यक्ति की उपयुक्त प्रतिक्रिया है जिसे अभी-अभी परमेश्वर के साथ एक घनिष्ठ संगति की आशीष मिली हो।

निर्गमन ३३ में हम मूसा और परमेश्वर के बीच एक वार्तालाप के बारे में पढ़ते हैं, जो तब हुई थी जब पूरी इस्राएल जाति ने परमेश्वर का अत्यंत निरादर किया था। मूसा के पास इसके बारे में परमेश्वर से कहने के लिए बहुत कुछ था। उनकी बातचीत के अंत में मूसा ने परमेश्वर से कहा कि वह तब तक आगे बढ़ना नहीं चाहता है जब तक परमेश्वर की उपस्थिति उनके संग संग न चले। परमेश्वर के साथ प्रार्थना में समय बिताने के बाद, आप भी उसकी उपस्थिति की भावना के बगैर आगे बढ़ना नहीं चाहेंगे, है ना? 

बाइबल सिखाती है कि परमेश्वर उसके लोगों की स्तुति पर विराजमान होता है (भजन संहिता २२:३)। जब आप परमेश्वर की स्तुति करते हैं, तब आप अपने जीवन में उसकी उपस्थिति प्रकट करने के लिए उसे आमंत्रित करते हैं, और अंधकार की शक्तियाँ भाग जाती हैं क्योंकि वे परमेश्वर की उपस्थिति का सामना नहीं कर सकती हैं।

"आमीन।" 

"आमीन" का शाब्दिक अर्थ है "ऐसा ही हो"। किसी लेखक ने कहा है, "अपनी प्रार्थना के अंत में 'आमीन' जोड़ना ऐसा है जैसे कि मानो एक न्यायाधीश अपनी मेज़ पर गैवेल (लकड़ी का एक छोटा हथौड़ा) मारते हुए उद्घोषणा कर रहा हो, "यह पूर्ण हुआ।""