पाप - यह वास्तव में क्या है?

घातक आत्मिक रोग जिसने समस्त मानव जाति को संक्रमित किया


प्रस्तावना

"...जैसा एक मनुष्य के द्वारा पाप जगत में आया, और पाप के द्वारा मृत्यु आई, और इस रीति से मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गई, इसलिये कि सब ने पाप किया।..."

– रोमियों ५:१२ 

"हव्वा ने उसकी बात सुनी और परमेश्वर पर संदेह करने लगी। उसने फल लिया और खाया। फिर उसने वह फल आदम को दिया और उसने खाया। और तुरंत ही उन्हें अपनी नग्नता का बोध हुआ और वे लज्जित हुए। कुछ भयंकर घट चूका था। कुछ बदल चूका था। शैतान की दुष्टता, किसी संक्रमित रोग के समान थी। और आदम के अवज्ञा करने के द्वारा यह रोग संसार में फैल गया। इसे कहते हैं - पाप। यह वह शक्ति है जो व्यक्ति के भीतर काम करती है कि परमेश्वर के साथ उसका सम्बन्ध नष्ट हो जाए; अंत में उन सब पर मृत्यु लाती है जिन्हें यह छू लेती है। आदम और हव्वा को बनाया गया था कि वे सदा के लिए जिएँ, परमेश्वर के साथ एक सुसंगति में। फल खाने से, उन्होंने परमेश्वर से अलग होकर कार्य किया, बिलकुल वैसे ही जैसे शैतान ने किया था। अब, वे मृत्यु का अनुभव करेंगे, पहले आत्मिक, और फिर शारीरिक। और आदम के द्वारा ही, पाप एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचता जाएगा, और समस्त मानव जाति को संक्रमित कर देगा, आज के दिन तक।"

– “आशा” अध्याय ३ 

ध्यान से देखें और विचार करें

बाइबल में शब्द 'पाप' का ज़िक्र ३५० से भी अधिक बार हुआ है। अक्सर इसका प्रयोग परमेश्वर के विरुद्ध किए गए किसी कार्य की पहचान के लिए किया जाता है (बाइबल में अक्सर इसका उल्लेख एक 'अपराध' के रूप में किया जाता है।) पाप की परिभाषाओं में से एक है- "निशाने से चूकना" 1 इस बात को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि 'निशाना' परमेश्वर का मार्ग है, और जब हम इसे चूक जाते हैं, तो हम पाप कर रहे होते हैं।

बाइबल में पाप का ज़िक्र उस शक्ति का वर्णन करने के लिए भी किया गया है जो लोगों को परमेश्वर के अधिकार के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए प्रभावित करती है। यह परमेश्वर के विरुद्ध केवल एक कार्य या एक कर्म नहीं है; लेकिन यह एक साक्षात् शक्ति है जो परमेश्वर के विरोध कार्य करने के लिए हमें प्रभावित करती है।  (देख उत्पत्ति 4:7 तथा रोमियों 6:12-13). आदम के द्वारा यह घातक शक्ति पूरी मानव जाति में फैल गई।

आप देख सकते हैं कि क्यों 'आशा' में पाप को एक संक्रामक रोग के रूप में वर्णित किया गया है। 2 इसका निदान किसी चिकित्सा तकनीकी से संभव नहीं है क्योंकि यह एक शारीरिक रोग नहीं है। यह एक आत्मिक रोग है जो सदैव मृत्यु लाता है। और इसका उपचार केवल परमेश्वर के पास है।

पूछें और मनन करें

कई लोगों यह सोचते हैं कि परमेश्वर के साथ एक संबंध में होने के लिए हमें बस अच्छा बनने की आवश्यकता है। और एक लोकप्रिय धारणा यह भी है कि जो कोई भी अपने जीवन में बुराई से अधिक अच्छाई करने में सफल होता है वह स्वर्ग जाता है। समस्या यह है कि यदि कोई व्यक्ति एक सिद्ध जीवन जी भी ले (जो हम में से कोई भी नहीं कर सकता है -रोमियों 3:23), तो भी वह व्यक्ति पाप से ग्रस्त ही रहेगा, जो पर्याप्त है हमें परमेश्वर के साथ एक सही संबंध रखने से रोकने के लिए। आपने देखा, यह केवल हमारे "अनेक पाप" नहीं हैं जो परमेश्वर और हमारे बीच दरार डालते हैं बल्कि यह हमारा "पाप" है। और जिस  प्रकार हमने पाठ १७ में शैतान के रूप को देखा था और इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि हम स्वयं से उसका मुकाबला नहीं कर सकते हैं, उसी प्रकार जब तक परमेश्वर की सामर्थ्य हमारे भीतर कार्य नहीं करती तब तक हम पाप पर काबू नहीं पा सकते हैं।

  • क्या आपके जीवन में कुछ ऐसी बातें हैं जिन में आप संघर्ष कर रहे हैं, संभवतः अपनी आदत के कारण?
  • क्या आपके जीवन में ऐसी उत्कुंठा और अभिलाषायें हैं, जिन्हें आप दूर नहीं कर पा रहे हैं, चाहे आप कितनी भी कोशिश क्यों  न कर लें?
  • इन प्रश्नों का ईमानदारी से उत्तर देने के बाद, क्या आपको इस बात पर विश्वास करना कठिन लगता है कि आपके भीतर एक शक्ति कार्य कर रही है जिसे पाप कहते हैं।

निर्णय लें और करें

यदि आप परमेश्वर को अनुमति दें तो वह आपको पाप की शक्ति से और एक दिन पाप की उपस्थिति से भी पूर्णतया छुटकारा दिला देगा। किंतु यह चुनाव आपका है। आपको पाप की समस्या के लिए परमेश्वर के समाधान को स्वीकार करना चाहिए, इस बात का अंगीकार करते हुए कि आप अपनी शक्ति से पाप पर काबू नहीं पा सकते हैं। परमेश्वर के उपचार के अलावा और कोई उपचार नहीं है। वह इसे प्रत्येक को एक उपहार के रूप में प्रदान करता है। क्या आपने परमेश्वर के उपहार को ग्रहण किया है?

कृपया इस बात को समझें कि उपहार तब तक उपहार नहीं होता जब तक आप उसे ग्रहण न कर लें। परमेश्वर का उपहार और उसे कैसे ग्रहण करना है, इसके बारे में, इस अध्ययन मार्गदर्शिका के अंत में ‘परमेश्वर को जानना’ खंड में विस्तार से बताया गया है।

अधिक अध्ययन के लिए पढ़ें

पाप के आत्मिक रोग के रूप के बारे में अधिक गहराई से अध्ययन करने के लिए  निम्नलिखित स्रोत पढ़ सकते हैं :

  • Dr. Bill Gillham, “The Power of Sin” from the November 1988 issue of Discipleship Journal. (http://brotherheart.wordpress.com/articles-by-bill-gillham/the-power-of-sin-part-2/) Retrieved October 6, 2006.
  • John Calvin, Institutes of the Christian Religion. (http://divdl.library.yale.edu/dl/FullText.aspx?qc=Eikon&q=3154&qp=28) Retrieved October 6, 2006. “Declaring that all of us died in Adam, Paul at the same time plainly testifies that we are infected with the disease of sin.”
  • William Perkins, The Art of Prophesying (1592, repr. Banner of Truth Trust, 1996, 54–55). As quoted by R. Scott Clark (Associate Professor of Historical and Systematic Theology, Westminster Seminary California), Classical Covenant Theology – Part 1: On Law and Gospel. (http://www.monergism.com/thethreshold/sdg/perkins_prophesying.html) Retrieved August 27, 2015. “The law exposes the disease of sin, and as a side–effect, stimulates and stirs it up. But it provides no remedy for it. However, the gospel not only teaches us what is to be done; it also has the power of the Holy Spirit joined to it.”
  • John Wesley, The Works of John Wesley, 14 Volumes, 5:449 (Peabody, Massachusetts, Hendrickson Publishing House, 1986). As quoted by Earl Robinson, Wesleyan Distinctives in Salvation Army Theology. (https://www.salvationist.org/extranet_main.nsf/vw_sublinks/8E93913570C2699B80256F16006D3C6F?openDocument). Retrieved October 5, 2006. “The preaching of the gospel, on the other hand, is the offer of a physician for the disease of sin. Wesley said: ‘It is absurd ...to offer a physician to those that are whole, or that at least imagine themselves to be. You are first to convince them that they are sick; otherwise they will not thank you for your labor.’”

Footnotes

1Charles C. Ryrie, Basic Theology (© Victor Books, a Division of Scripture Press Publications, Inc., Wheaton, Illinois, 1988, p. 212). “Indeed, it might be a good idea to define it [sin] thus: sin is missing the mark, badness, rebellion, iniquity, going astray, wickedness, wandering, ungodliness, crime, lawlessness, transgression, ignorance, and a falling away.”
2Billy Graham, “When Having It All Isn’t Enough” from the June 2004 issue of Decision magazine. (http://www.billygraham.org). Retrieved October 5, 2006.

Scripture quotations taken from the NASB